श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 71: रथ और सेना सहित भरत की यात्रा, अयोध्या की दुरवस्था देखते हुए सारथि से अपना दुःखपूर्ण उद्गार प्रकट करते हुए राजभवन में प्रवेश  »  श्लोक 25-26
 
 
श्लोक  2.71.25-26 
 
 
उद्यानानि पुरा भान्ति मत्तप्रमुदितानि च।
जनानां रतिसंयोगेष्वत्यन्तगुणवन्ति च॥ २५॥
तान्येतान्यद्य पश्यामि निरानन्दानि सर्वश:।
स्रस्तपर्णैरनुपथं विक्रोशद्भिरिव द्रुमै:॥ २६॥
 
 
अनुवाद
 
  जो उद्यान पहले मदमस्त और आनंदित भ्रमरों, कोयलों और पुरुषों-स्त्रियों से भरे हुए प्रतीत होते थे और लोगों के प्रेम-मिलन के लिए अत्यंत गुणकारी (अनुकूल सुविधाओं से युक्त) थे, उन उद्यानों को मैं आज सर्वथा आनंदहीन देख रहा हूँ। वहाँ मार्ग पर वृक्षों के जो पत्ते गिर रहे हैं, उनके द्वारा मानो वे वृक्ष करुण क्रंदन कर रहे हैं (और उनसे उपलक्षित होने के कारण वे उद्यान आनंदहीन प्रतीत होते हैं)।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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