श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 20: राजा दशरथ की अन्य रानियों का विलाप, श्रीराम का कौसल्याजी को अपने वनवास की बात बताना  »  श्लोक 51
 
 
श्लोक  2.20.51 
 
 
स्थिरं हि नूनं हृदयं ममायसं
न भिद्यते यद् भुवि नो विदीर्यते।
अनेन दु:खेन च देहमर्पितं
ध्रुवं ह्यकाले मरणं न विद्यते॥ ५१॥
 
 
अनुवाद
 
  मेरा हृदय लोहे का बना हुआ है, जो पृथ्वी पर पड़ने पर भी नहीं फटता है और न ही टुकड़े-टुकड़े हो जाता है। यह शरीर भी दुःख से व्याप्त होने के बावजूद टुकड़े-टुकड़े नहीं हो जाता है। निश्चित रूप से, मृत्यु का समय आने से पहले किसी की मृत्यु नहीं होती है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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