श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 12: महाराज दशरथ की चिन्ता, विलाप, कैकेयी को फटकारना, समझाना और उससे वैसा वर न माँगने के लिये अनुरोध करना  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  2.12.3 
 
 
इति संचिन्त्य तद् राजा नाध्यगच्छत् तदासुखम्।
प्रतिलभ्य तत: संज्ञां कैकेयीवाक्यतापित:॥ ३॥
 
 
अनुवाद
 
  इस प्रकार मन ही मन विचार करते हुए राजा को अपने दुःख का कारण नहीं समझ में आ सका। उस समय राजा को मूर्च्छित कर देने वाला बड़ा दुःख हुआ। उसके पश्चात होश में आने पर कैकेयी के वचनों को याद करके उन्हें फिर से दुःख होने लगा।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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