श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 12: महाराज दशरथ की चिन्ता, विलाप, कैकेयी को फटकारना, समझाना और उससे वैसा वर न माँगने के लिये अनुरोध करना  »  श्लोक 103
 
 
श्लोक  2.12.103 
 
 
अहं पुनर्देवकुमाररूप-
मलंकृतं तं सुतमाव्रजन्तम्।
नन्दामि पश्यन्निव दर्शनेन
भवामि दृष्ट्वैव पुनर्युवेव॥ १०३॥
 
 
अनुवाद
 
  जब मैं अपने पुत्र श्रीराम को देव कुमार के समान कमनीय रूप से अलंकृत होकर सामने आते देखता हूँ, तो उनकी शोभा निहारकर निहाल हो जाता हूँ। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो मैं फिर से जवान हो गया हूँ। उनकी मधुर मुस्कान और आकर्षक व्यक्तित्व मुझे मोहित कर लेता है। उनके साथ समय बिताना मेरे लिए सबसे सुखद अनुभव होता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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