श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 114: भरत के द्वारा अयोध्या की दुरवस्था का दर्शन तथा अन्तःपुर में प्रवेश करके भरत का दुःखी होना  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  2.114.5 
 
 
विधूमामिव हेमाभां शिखामग्ने: समुत्थिताम्।
हविरभ्युक्षितां पश्चाच्छिखां विप्रलयं गताम्॥ ५॥
 
 
अनुवाद
 
  अयोध्या, जो पहले धूमरहित सुनहरी कान्ति वाली प्रदीप्त अग्नि के समान प्रकाशित हुआ करती थी, अब श्रीराम के वनवास के बाद ऐसा लगता है मानो हवि के दूध से बुझाई गई अग्नि की लौ की तरह बुझ गई हो और विलीन-सी हो गयी हो।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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