श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 114: भरत के द्वारा अयोध्या की दुरवस्था का दर्शन तथा अन्तःपुर में प्रवेश करके भरत का दुःखी होना  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  2.114.10 
 
 
प्रभाकराद्यै: सुस्निग्धै: प्रज्वलद्भिरिवोत्तमै:।
वियुक्तां मणिभिर्जात्यैर्नवां मुक्तावलीमिव॥ १०॥
 
 
अनुवाद
 
  अयोध्या श्रीराम के बिना वैसी ही शोभाहीन हो गयी थी, जैसे मोतियों की वह नई माला होती है जिससे पद्मराग आदि उत्तम और चमकीले मणियों को निकालकर अलग कर दिया गया हो।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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