श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 2: अयोध्या काण्ड  »  सर्ग 1: श्रीराम के सद्गुणों का वर्णन, राजा दशरथ का श्रीराम को युवराज बनाने का विचार  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  2.1.30 
 
 
अप्रधृष्यश्च संग्रामे क्रुद्धैरपि सुरासुरै:।
अनसूयो जितक्रोधो न दृप्तो न च मत्सरी॥ ३०॥
 
 
अनुवाद
 
  युद्ध में क्रोधित होकर उमड़ने वाले सभी देवताओं और राक्षसों से भी उन्हें कोई हरा नहीं सकता था। उनमें दूसरों की कमियों को देखने की प्रवृत्ति बिल्कुल नहीं थी। उन्होंने अपने क्रोध पर विजय प्राप्त कर ली थी। उनमें अहंकार और ईर्ष्या का बिल्कुल अभाव था।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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