श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 1: बाल काण्ड  »  सर्ग 60: ऋषियों द्वारा यज्ञ का आरम्भ, त्रिशंकु का सशरीर स्वर्गगमन, इन्द्र द्वारा स्वर्ग से उनके गिराये जाने पर क्षुब्ध हुए विश्वामित्र का नूतन देवसर्ग के लिये उद्योग  »  श्लोक 30-33h
 
 
श्लोक  1.60.30-33h 
 
 
एवमुक्ता: सुरा: सर्वे प्रत्यूचुर्मुनिपुंगवम्।
एवं भवतु भद्रं ते तिष्ठन्त्वेतानि सर्वश:॥ ३०॥
गगने तान्यनेकानि वैश्वानरपथाद् बहि:।
नक्षत्राणि मुनिश्रेष्ठ तेषु ज्योति:षु जाज्वलन्॥ ३१॥
अवाक्शिरास्त्रिशङ्कुश्च तिष्ठत्वमरसंनिभ:।
अनुयास्यन्ति चैतानि ज्योतींषि नृपसत्तमम्॥ ३२॥
कृतार्थं कीर्तिमन्तं च स्वर्गलोकगतं यथा।
 
 
अनुवाद
 
  उनके ऐसा कहने पर सभी देवता मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र से बोले - "महर्षे! आपने जो कहा, वैसा ही हो, ये सभी वस्तुएँ बनी रहें और आपका कल्याण हो। मुनिश्रेष्ठ! आपके द्वारा रचे गए अनेक नक्षत्र आकाश में वैश्वानर पथ से बाहर प्रकाशित होंगे, और उन्हीं ज्योतिर्मय नक्षत्रों के बीच सिर नीचा किये त्रिशंकु भी प्रकाशमान रहेंगे। वहाँ त्रिशंकु की स्थिति देवताओं के समान होगी और सभी नक्षत्र इस कृतार्थ और यशस्वी नरेश्वर का स्वर्गीय पुरुष की भाँति अनुसरण करते रहेंगे।"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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