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श्रीमद् वाल्मीकि रामायण
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सर्ग 43: भगीरथ की तपस्या, भगवान् शङ्कर का गंगा को अपने सिर पर धारण करना, भगीरथ के पितरों का उद्धार
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श्लोक 16-17h
श्लोक
1.43.16-17h
असर्पत जलं तत्र तीव्रशब्दपुरस्कृतम्।
मत्स्यकच्छपसङ्घैश्च शिंशुमारगणैस्तथा॥ १६॥
पतद्भि: पतितैश्चैव व्यरोचत वसुंधरा।
अनुवाद
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गंगाजी की वह जलराशि तीव्र गति से बह रही थी और उसका शोर बहुत तेज था। मछलियाँ, कछुए और शिंशुमार (सूंस) झुंड के झुंड गंगा में गिर रहे थे। इन गिरते हुए जलजन्तुओं से पृथ्वी बहुत सुंदर लग रही थी।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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