श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 1: बाल काण्ड  »  सर्ग 33: राजा कुशनाभ द्वारा कन्याओं के धैर्य एवं क्षमाशीलता की प्रशंसा, ब्रह्मदत्त की उत्पत्ति,कुशनाभ की कन्याओं का विवाह  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  1.33.26 
 
 
सोमदापि सुतं दृष्ट्वा पुत्रस्य सदृशीं क्रियाम्।
यथान्यायं च गन्धर्वी स्नुषास्ता: प्रत्यनन्दत।
स्पृष्ट्वा स्पृष्ट्वा च ता: कन्या: कुशनाभं प्रशस्य च॥ २६॥
 
 
अनुवाद
 
  गन्धर्वी सोमदाने ने अपने पुत्र और उसके लिए चुने गए योग्य विवाह-सम्बन्ध को देखकर अपनी पुत्रवधुओं का उचित सम्मान किया। उसने प्रत्येक राजकुमारी को गले लगाया और अंत में महाराज कुशनाभ की प्रशंसा करके वहाँ से विदा ली।
 
 
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे त्रयस्त्रिंश: सर्ग:॥ ३३॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें तैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ३३॥
 
 
 
  Connect Form
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
  © copyright 2024 vedamrit. All Rights Reserved.