“हे ककुत्स्थ नन्दन! मैंने इन दोनों विद्याओं को तुम्हें देने का सोचा है। राजकुमार! तुम ही इसके उपयुक्त पात्र हो। हालाँकि इस विद्या को प्राप्त करने योग्य तुम्हारे अंदर अनेक गुण हैं, या यह भी कह सकते हैं कि सभी श्रेष्ठ गुण तुममें विद्यमान हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। फिर भी मैंने तपोबल से इनका अर्जन किया है। इसलिए मेरी तपस्या से परिपूर्ण होकर ये तुम्हारे लिए बहुरूपिणी होंगी और विविध प्रकार से फल प्रदान करेंगी।”