श्रीमद् वाल्मीकि रामायण  »  काण्ड 0: श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण माहात्म्य  »  सर्ग 4: चैत्रमास में रामायण के पठन और श्रवण का माहात्म्य, कलिक नामक व्याध और उत्तङ्क मुनि की कथा  »  श्लोक 32-33h
 
 
श्लोक  0.4.32-33h 
 
 
पूर्वजन्मार्जितै: पापैर्लुब्धकत्वमवाप्तवान्॥ ३२॥
अत्रापि पापजालानि कृत्वा कां गतिमाप्नुयाम्।
 
 
अनुवाद
 
  "पूर्व जन्म में किए कर्मों के कारण मुझे व्याध होना पड़ा है, यहाँ भी मैंने पापों के ही जाल में फँसकर पाप कमाए हैं। इन पापों के कारण मैं किस गति को प्राप्त करूँगा?"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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