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श्रीमद् वाल्मीकि रामायण
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काण्ड 0: श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण माहात्म्य
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सर्ग 4: चैत्रमास में रामायण के पठन और श्रवण का माहात्म्य, कलिक नामक व्याध और उत्तङ्क मुनि की कथा
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श्लोक 21
श्लोक
0.4.21
सुजनो न याति वैरं
परहितनिरतो विनाशकालेऽपि।
छेदेऽपि चन्दनतरु:
सुरभीकरोति मुखं कुठारस्य॥ २१॥
अनुवाद
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दूसरों की भलाई में लगे रहने वाले साधु पुरुष किसी के द्वारा अपने विनाश का समय आने पर भी उससे वैर नहीं करते। चंदन का वृक्ष अपने को काटने पर भी कुठार की धार को सुगंधित ही करता है।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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