यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥ २ ॥
अनुवाद
हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं उसे ही तुम योग अर्थात् परब्रह्म से एक हो जाना समझो क्योंकि इंद्रिय सुखों के प्रति आशा त्यागे बिना कोई कभी योगी नहीं हो सकता।