इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् ।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥ १३ ॥
असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥ १४ ॥
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिता: ॥ १५ ॥
अनुवाद
राक्षसी प्रवृत्ति का व्यक्ति सोचता है, "आज मेरे पास बहुत अधिक धन है, और अपनी योजनाओं के अनुसार मैं और अधिक धन कमाऊँगा। इस समय मेरे पास बहुत कुछ है, और भविष्य में यह और अधिक बढ़ता जाएगा। वह मेरा शत्रु है और मैंने उसे मार डाला है, और मेरे अन्य शत्रु भी मारे जाएँगे। मैं सभी वस्तुओं का स्वामी हूँ। मैं भोक्ता हूँ। मैं पूर्ण, शक्तिशाली और सुखी हूँ। मैं सबसे धनी व्यक्ति हूँ, और मेरे आसपास मेरे कुलीन सम्बन्धी हैं। कोई भी अन्य व्यक्ति मेरे समान शक्तिशाली और सुखी नहीं है। मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस प्रकार आनन्द मनाऊँगा। इस प्रकार ऐसे लोग अज्ञानतावश मोहग्रस्त बने रहते हैं।"