काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता: ।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रता: ॥ १० ॥
अनुवाद
अतृप्त कामना की शरण लेकर तथा घमंड के नशे और झूठी प्रतिष्ठा में डूबे हुए राक्षसी लोग इस तरह भ्रम में रहते हैं कि वे सदैव क्षणिक वस्तुओं द्वारा अशुभ कर्म के व्रत का पालन करते रहते हैं।