न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥ ३ ॥
तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय: ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यत: प्रवृत्ति: प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥
अनुवाद
इस वृक्ष का वास्तविक रूप इस संसार में अनुभव नहीं किया जा सकता। कोई नहीं जानता कि इसकी जड़ कहाँ है, इसका अंत कहाँ है या इसकी नींव कहाँ है? लेकिन मनुष्य को चाहिए कि इस दृढ़ मूल वाले वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काट गिराए। तत्पश्चात् उसे ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिए जहाँ जाकर लौटा ना पड़े और जहाँ उस ईश्वर की शरण ग्रहण कर ली जाये, जिससे अनादिकाल से प्रत्येक वस्तु का सूत्रपात और विस्तार होता आया है।