न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै-
र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रै: ।
एवंरूप: शक्य अहं नृलोके
द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥ ४८ ॥
अनुवाद
हे कुरुश्रेष्ठ! तुमसे पहले किसी ने मेरा यह विश्वरूप नहीं देखा, क्योंकि न तो वेदों के अध्ययन से, न यज्ञ, दान और पुण्य कर्मों से और न ही कठोर तपस्या से कोई मुझे इस रूप में, इस संसार में देख सकता है।