नभ:स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥ २४ ॥
अनुवाद
हे सर्वव्यापी विष्णु! विविध ज्योतिर्मय रंगों से युक्त आपको आकाश का स्पर्श करते, मुँह बाए हुए और बड़ी-बड़ी चमकती आँखें रखते हुए देखकर भय से मेरा मन विचलित हो रहा है। अब मैं न तो स्थिरता रख पा रहा हूँ और न ही अपने मानसिक संतुलन को बनाए रख पा रहा हूँ।