श्रीमद् भगवद्-गीता  »  अध्याय 1: युद्धस्थल परीक्षण एवं अर्जुन विषाद योग  »  श्लोक 37-38
 
 
श्लोक  1.37-38 
 
 
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३७ ॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मन्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भ‍िर्जनार्दन ॥ ३८ ॥
 
अनुवाद
 
  हे जनार्दन! यद्यपि लोभ के कारण विचलित ये लोग अपने परिजनों को मारने और अपने मित्रों से बैर करने में कोई पाप नहीं मानते, परंतु हम, जो कुल के विनाश में पाप देख सकते हैं, ऐसे पापों में क्यों रत हों?
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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